होलीका दहन बुराई पर अच्छाई की जीत का पावन पर्व

होलीका दहन बुराई पर अच्छाई की जीत का पावन पर्व

क्या आप जानते हैं कि होली से पहले जलने वाली होलीका की आग सिर्फ परंपरा नहीं, बल्कि एक गहरा संदेश भी देती है? होलिका दहन, हिन्दुओं का एक महत्वपूर्ण पर्व है, जिसमें होली के एक दिन पहले यानी पूर्व सन्ध्या को होलिका का सांकेतिक रूप से दहन किया जाता है। होलिका दहन बुराई पर अच्छाई की जीत के पर्व के रूप में मनाया जाता है| 

भारत की संस्कृति में विविधता और परंपरा की अनूठी मिसाल देखने को मिलती है। हर त्योहार को खास श्रद्धा और निष्ठा से मनाने की परंपरा ने हमारी संस्कृति को जीवंत बनाए रखा है। होली का पर्व विशेष रूप से बुराई के अंत और अच्छाई की विजय का प्रतीक माना जाता है, और इस दिन की खासियत है होलिका दहन की रस्म, जिसमें बुराइयां नष्ट होती हैं और घर में सुख-समृद्धि का आगमन होता है दिवाली के बाद हिंदू कैलेंडर में दूसरे सबसे महत्वपूर्ण त्योहार के रूप में जाना जाने वाला होली आनंद, क्षमा और बुराई पर अच्छाई की जीत की भावना का प्रतीक है।

हिंदू पंचांग के अनुसार, होलिका दहन हर वर्ष फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इसके अगले दिन रंगों की होली खेली जाती है। होली के उत्सव के साथ-साथ होलिका की अग्नि में सभी नकारात्मक शक्तियों का नाश किया जाता है। इसी क्रम में आइए जानते हैं कि होलिका दहन कब है और इसका महत्व क्या है। 

क्यों मनाया जाता है होलीका का त्योहार ?

होली के पर्व को लेकर एक पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं। एक कथा के अनुसार, भक्त प्रह्लाद राक्षस कुल में जन्मे थे। लेकिन वे भगवान नारायण के परम भक्त थे। उनके पिता हिरण्य कश्यप को उनकी भक्ति अच्छी नहीं लगती थी इसलिए उन्होंने अपने पुत्र प्रह्लाद को कई कष्ट दिए। प्रह्लाद की बुआ होलिका को ऐसा वस्त्र वरदान में मिला था जिसको पहनकर आग में बैठने से आग उसे जला नहीं सकती थी। होलिका भक्त प्रह्लाद को मारने के वह वस्त्र पहनकर आग में बैठ गई। प्रह्लाद की भगवान विष्णु की भक्ति के फल से होलिका जल गई और प्रह्लाद का बाल भी बांका नहीं हुआ। शक्ति पर भक्ति की जीत की खुशी में तभी से यह पर्व मनाया जाने लगा। रंगों का पर्व संदेश देता है कि काम, क्रोध, लोभ व मोह को त्यागकर ईश्वर भक्ति में लीन रहना चाहिए।मान्यता है, कि तब से ही बुराई पर अच्छाई की जीत के उत्साह स्वरूप सदियों से हर वर्ष होलिका दहन मनाया जाता है। होलिका दहन की कथा पाप पर धर्म की विजय का प्रतीक है।

होलिका दहन का महत्त्व

होलिका दहन का महत्व पौराणिक कथाओं से कहीं अधिक  है। होलिका के जलाने की परंपरा आत्मा की शुद्धि और मन की पवित्रता का प्रतीक है, जो व्यक्तियों को होली के उत्सव के लिए तैयार करती है। इसके अतिरिक्त, होलिका दहन कृषि चक्र से भी संबंधित है। यह पर्व देवताओं को भरपूर फसल के लिए प्रतीकात्मक रूप से अर्पित किया जाता है और आने वाले वर्ष में समृद्धि और प्रचुरता के लिए उनका आशीर्वाद प्राप्त करने की प्रार्थना की जाती है| होलिका दहन के महत्व को निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से आसानी से समझा जा सकता है –

  • अहंकार का नाश – यह पर्व हमें सिखाता है कि अहंकार का अंत निश्चित है।
  • सत्य की विजय – बुराई चाहे कितनी भी बड़ी हो, अंत में जीत सच्चाई की होती है।
  • आत्मिक शुद्धि – होलिका दहन के माध्यम से नकारात्मकता को जलाकर सकारात्मक ऊर्जा ग्रहण करनी चाहिए।

होलिका दहन से जुड़ी कुछ अद्भुत पौराणिक कथाएं

जैसा कि अधिकतर यहीं कथा प्रचलित है, कि होलिका नामक असुरी के दहन और विष्णुभक्त प्रह्लाद के सकुशल अग्नि से बच जाने की खुशी में ही होलिका दहन और होली का पर्व मनाया जाता है। परंतु इसके अलावा भी holika dahan in Hindi से जुड़ी कई पौराणिक कथाएं हैं, जो कि इस प्रकार हैं-

भगवान शिव और कामदेव की कथा

जब भगवान शिव की पत्नी सती ने अग्नि में प्रवेश किया और अपने पिता दक्ष द्वारा भगवान शिव को दिखाए गए अपमान के कारण मृत्यु को गले लगा लिया, तो वह पूरी तरह से टूट गए थे। उन्होंने अपने कर्तव्यों को त्याग दिया और गंभीर ध्यान में चले गए। इससे दुनिया में विनाशकारी असंतुलन पैदा हो गया, जिससे सभी देवता चिंतित हो गए। इस बीच, सती का देवी पार्वती के रूप में पुनर्जन्म हुआ। वह भगवान शिव से विवाह करना चाहती थी लेकिन भगवान शिव को इसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी और उन्होंने उसकी भावनाओं को अनदेखा करना चुना। तब देवताओं ने भगवान शिव को प्रभावित करने के लिए कामदेव को भेजने का फैसला किया ताकि उनके और पार्वती के बीच विवाह संपन्न हो। इंद्र ने कामदेव को बुलाया और उन्हें बताया कि राक्षस राजा तारकासुर को ऐसे व्यक्ति द्वारा ही मारा जा सकता है जो शिव और पार्वती का पुत्र हो। इंद्र ने कामदेव को भगवान शिव में प्रेम जगाने का निर्देश दिया, ताकि वह पार्वती से शादी करने के लिए राजी हो जाएं।

कामदेव, अपनी पत्नी रति के साथ अपने कार्य को पूरा करने के लिए भगवान शिव के पास गए। उस स्थान पर पहुँचने के बाद जहाँ भगवान शिव अपने ध्यान में लीन थे। तभी कामदेव ने पार्वती को अपनी सखियों के साथ आते देखा। ठीक उसी क्षण भगवान शिव भी अपनी ध्यान समाधि से बाहर आ गए थे। कामदेव ने भगवान शिव पर अपने ‘कामबाण’ से प्रहार किया, जिसका उन पर गहरा प्रभाव पड़ा। भगवान शिव पार्वती के अद्भुत सौंदर्य पर मोहित हो गए और उनका हृदय उनके लिए प्रेम से भर गया। लेकिन साथ ही वह अपने व्यवहार में अचानक आए बदलाव से हैरान थे।  भगवान शिव ने अपने चारों ओर देखा। उन्होंने देखा कि कामदेव हाथ में धनुष-बाण लिए बायीं ओर खड़े हैं। अब उन्हें पूरा विश्वास हो गया था कि यह वास्तव में यह कामदेव ने ही किया है। अत्यंत क्रोध के परिणाम स्वरूप भगवान शिव की तीसरी आंख खुल गई और कामदेव भस्म हो गए। कामदेव की पत्नी रति फूट फूट कर रोने लगी। उन्होंने शिव से अपने पति को जीवित करने की गुहार लगाई। उसके बाद देवताओं ने भी भगवान शिव के पास जाकर उनकी पूजा की। उन्होंने उन्हें बताया कि यह कामदेव की गलती नहीं थी, उन्होंने उन्हें तारकासुर की मृत्यु का रहस्य भी बताया। तब देवताओं ने उनसे कामदेव को एक बार फिर से जीवित करने का अनुरोध किया। 

तब तक भगवान शिव का क्रोध शांत हो चुका था और उन्होंने देवताओं से कहा कि कामदेव द्वापर युग में कृष्ण और रुक्मिणी के पुत्र के रूप में जन्म लेंगे। शंबर नाम का एक राक्षस उसे समुद्र में फेंक देगा। वह उस राक्षस को मार डालेगा और रति से शादी करेगा, जो समुद्र के पास एक शहर में रह रही होगी। तब से कामदेव को भगवान शिव द्वारा भस्म होने को होलिका दहन और उनके पुनर्जन्म की खुशी को होली के रूप में मनाया जाता है।

भगवान श्री कृष्ण और पूतना की कथा 

एक प्रचलित कथा श्री कृष्ण और पूतना नामक राक्षसी की भी है। जब भगवान कृष्ण गोकुल में बड़े हो रहे थे, मथुरा के राजा कंस ने उन्हें खोजने और मारने की कोशिश की। कंस ने कृष्ण के मिलने तक सभी बच्चों को मारने के लिए राक्षसी पूतना को भेजने का फैसला किया। उसने कंस के राज्य में सभी शिशुओं को बेरहमी से मारना शुरू कर दिया। उसने पड़ोसी राज्यों में भी शिशुओं को मारना शुरू कर दिया। चुपचाप घरों में घुसकर, वह बच्चों को तब उठा लेती थी जब उनकी माताएँ या तो सो रही होती थीं या घर के कामों में व्यस्त होती थीं। वह खेतों में काम करने वाले माता-पिता के बच्चों का अपहरण भी कर लेती थी। 

राज्य के सभी बच्चों को खत्म करने की अपनी खोज में, पूतना कृष्ण के गाँव पहुँची। वह सूर्यास्त के बाद गाँव में दाखिल हुई ताकि कोई उसे पहचान न सके। वह जहां भी जाती, लोगों को यशोदा और नंदराज के नवजात शिशु के बारे में बात करते सुनती थी। नन्हे बालक के दिव्य रूप को देखकर हर कोई मंत्रमुग्ध नजर आ रहा था। पूतना ने तुरन्त जान लिया कि यही वह बालक है जिसकी उसे तलाश थी। उसने रात गाँव के बाहर बिताने और सुबह कृष्णा के घर जाने का फैसला किया। पूतना ने एक सुंदर स्त्री का वेश धारण किया और के यशोदा और नंद के घर पहुंचीं, जहां यशोदा ने उनका अच्छी तरह से स्वागत किया। उसने अपना परिचय दिया और यशोदा से अनुरोध किया कि वह उसे कृष्ण को खिलाने की अनुमति दे। यशोदा ने भी सोचा कि सुंदर युवती कोई देवी थी और पूतना के अनुरोध पर सहमत हो गई।

पूतना ने नन्हे कृष्ण को गोद में उठा लिया और उसे खिलाने लगी और अपने जहरीले दूध का स्तनपान उसे कराने लगी। उसने सोचा कि कुछ ही मिनटों में कृष्ण निर्जीव हो जाएंगे। इसके बजाय, पूतना को अचानक ऐसा लगने लगा जैसे वह छोटा लड़का उसके जीवन को चूस रहा हो। उसने कृष्ण को अपने से दूर करने की कोशिश की लेकिन ऐसा करने में असमर्थ रही। बच्चे को डराने के लिए वह अपने मूल रूप में वापस आ गई। वह हवा में उड़ने लगी ताकि बच्चा डर कर उसे छोड़ दे। लेकिन सब व्यर्थ था। कृष्ण ने उसे जाने नहीं दिया और अंततः पूतना के पूरे जीवन को चूस लिया। पूतना का निर्जीव शरीर भूमि पर गिर पड़ा और तब से ही पूतना जैसी बुराई के अंत के प्रतीक के रूप में होलिका दहन करने की मान्यता है।

होलिका दहन का शुभ मुहूर्त

पूर्णिमा तिथि 13 मार्च 2025 को सुबह 10 बजकर 35 मिनट पर प्रारंभ होगी और 14 मार्च 2025 को दोपहर 12 बजकर 23 मिनट पर समाप्त होगी। होलिका दहन का त्योहार 13 मार्च 2025 को मनाया जाएगा। होलिका दहन का शुभ मुहूर्त रात 11 बजकर 26 मिनट से प्रारंभ होगा और 14 मार्च 12 बजकर 29 मिनट तक रहेगा।

होलिका दहन के दिन का पंचांग

  • सूर्योदय – सुबह 6 बजकर 33 मिनट पर
  • सूर्यास्त – शाम 6 बजकर 28 मिनट पर
  • चंद्रोदय – शाम 5 बजकर 45 मिनट पर
  • चंद्रास्त – सुबह 6 बजकर 30 मिनट पर (14 मार्च)
  • ब्रह्म मुहूर्त – सुबह 4 बजकर 56 मिनट से 5 बजकर 45 मिनट तक
  • विजय मुहूर्त – दोपहर के दो बजकर 30 मिनट से दोपहर के तीन बजकर 18 मिनट तक
  • गोधूलि मुहूर्त – शाम 6 बजकर 26 मिनट से 6 बजकर 50 मिनट तक
  • निशिता मुहूर्त – रात 12 बजकर 6 मिनट से 12 बजकर 54 मिनट तक

भद्रा काल में नहीं करते हैं होलिका दहन

होलिका दहन में भद्रा काल का विचार किया जाता है। ज्योतिष शास्त्र में भद्रा काल के समय होलिका दहन वर्जित है। भद्रा रहित प्रदोष व्यापिनी पूर्णिमा तिथि होलिका दहन के लिये उत्तम मानी जाती है।
द्रिक पंचांग के अनुसार, होलिका दहन के भद्रा सुबह 10 बजकर 35 मिनट पर प्रारंभ होगी और रात 11 बजकर 26 मिनट पर समाप्त होगी।

होलिका दहन की पूजन विधि

  • होलिका दहन के दिन सुबह जल्दी उठकर नहा धो लें। व्रत का संकल्प लेने के बाद होलिका दहन की तैयारी करें।
  •  जिस जगह पर होलिका दहन करना हो, उस जगह को साफ कर लें। यहां होलिका दहन की सारी सामग्री इकट्ठा कर लें। इसके बाद होलिका और प्रह्लाद की प्रतिमा बनाकर भगवान नरसिंह की पूजा करें।
  •  शुभ मुहूर्त के दौरान होलिका की पूजा करें और उसमें अग्नि दें।इसके बाद परिवार के साथ होलिका की तीन बार परिक्रमा कर लें। 
  • फिर नरसिंह भगवान से प्रार्थना करते हुए होलिका की आग में गेहूं, चने की बालियां, जौ, गोबर के उपले आदि डालें। इसके बाद होलिका की आग में गुलाल और जल चढ़ाएं।
  • होलिका की आग शांत होने के बाद उसकी राख को घर ले जाएं। इससे घर की नकारात्मक ऊर्जा दूर होती है।
  • अगर आपके घर में वास्तु दोष है तो होलिका की राख को दक्षिण पूर्व दिशा (आग्नेय कोण) में रखें। इससे घर का वास्तु दोष दूर होता है। होलिका दहन की ज्वाला देखने के बाद ही भोजन करें।

होलिका दहन के मंत्र

होलिका दहन के दौरान मंत्र जाप किया जाता है। हालांकि यह अलग-अलग स्थानों और पूजा पद्धतियों में अलग हो सकता है, लेकिन होलिका पूजन के दौरान इस मंत्र का जप सकते हैंः

अहकूटा भयत्रस्तै: कृता त्वं होलि बालिशै:,

अतस्वां पूजयिष्यामि भूति-भूति प्रदायिनीम।

इसी तरह होली की भस्म अपने शरीर पर लगाने के दौरान नीचे दिए गए मंत्र का उच्चारण किया जा सकता हैः

वंदितासि सुरेन्द्रेण ब्रह्मणा शंकरेण च।

अतस्त्वं पाहि मां देवी! भूति भूतिप्रदा भव।।

होलिका दहन के दिन क्या करें?

होलिका दहन के दिन बच्चों को लकड़ी की तलवार बनाकर दें। उन्हें दिनभर हंसने और खेलने दें। उन्हें उत्साही सैनिक बनाएं, ताकि वे साहसी बन सकें। होलिका दहन के दिन बच्चों को अलग-अलग प्रकार के पकवान खिलाएं। उन्हें पूड़ी, खीर, मालपुआ, हलवा और कचौड़ी आदि खाने के लिए दें। इससे पूरे साल घर में सुख, शांति और समृद्धि होती है। होलिका दहन के दिन हनुमानजी की पूजा करने का महत्व बताया गया है। इससे साल भर शुभ परिणाम मिलते हैं। इसके अलावा आज पूरे परिवार के साथ चंद्रमा के दर्शन करने चाहिए। मान्यता है कि इससे अकाल मृत्यु का भय दूर होता है।

गोबर की गुलरी और उसकी परंपरा

होली के दौरान गोबर से बनी गुलरी या उपले की माला जलाने की परंपरा सदियों से चली आ रही है। ये गुलरियां खासतौर पर गाय के गोबर से बनाई जाती हैं और होलिका दहन के समय इनको जलाकर पूजा जाती हैं। महिलाएं इस माला को एक रस्सी में पिरोकर होली पर चढ़ाती हैं, और पूजा करती हैं। अब सवाल यह उठता है कि आखिर क्यों गोबर की गुलरी बनाई जाती है और गाय के गोबर का ही उपयोग क्यों किया जाता है?

गाय के गोबर का उपयोग क्यों?

हिंदू धर्म में गाय को देवी-देवताओं का निवास माना जाता है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, गाय में 33 करोड़ देवी-देवताओं का वास होता है। इस कारण गाय के गोबर का उपयोग विशेष रूप से शुभ माना जाता है। गाय के गोबर से बने उपले जलाने से घर का वातावरण शुद्ध रहता है और सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है, जिससे घर में सुख-शांति और समृद्धि बनी रहती है।

नकारात्मक शक्तियों का नाश

ज्योतिषाचार्यों के अनुसार, गोबर के उपले शुभता और सकारात्मक ऊर्जा का प्रतीक माने जाते हैं। जब इन्हें जलाया जाता है, तो जलने के दौरान निकलने वाला धुआं आसपास की नकारात्मक ऊर्जा और बुरी शक्तियों को समाप्त करने में मदद करता है। यही कारण है कि धार्मिक अनुष्ठानों, जैसे यज्ञ और हवन, में भी गाय के गोबर का उपयोग किया जाता है। इस धुएं से वातावरण शुद्ध होता है और घर में सुख-समृद्धि का आगमन होता है| 

घर की परेशानियों का निवारण

गोलरी जलाने की परंपरा से यह विश्वास भी जुड़ा हुआ है कि इसे जलाने से घर की सारी परेशानियां दूर होती हैं। गोबर के छोटे-छोटे उपले बनाए जाते हैं और फिर इनसे माला तैयार की जाती है। होलिका दहन के समय जब ये उपले जलते हैं, तो इससे घर की सभी बाधाएं समाप्त होती हैं और सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। घर के सभी सदस्य मानसिक और शारीरिक रूप से शांति और सुख का अनुभव करते हैं।

विज्ञान भी है इसके साथ

यदि हम इसे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें, तो गाय के गोबर से निकलने वाले तत्व वातावरण को शुद्ध करने में मदद करते हैं। गाय के गोबर में एंटी-बैक्टीरियल गुण होते हैं, जो हवा में मौजूद हानिकारक बैक्टीरिया और विषैले तत्वों को समाप्त करते हैं। इसके धुएं से वातावरण में शुद्धता आती है, जो शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है।होलिका दहन का वैज्ञानिक कारणों को निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से आसानी से समझा जा सकता है, जो इस प्रकार हैं –

  • होलिका दहन की आग से निकलने वाली गर्मी वातावरण में मौजूद हानिकारक सूक्ष्मजीवों को नष्ट कर देती है। यह प्रक्रिया वातावरण को शुद्ध करने का कार्य करती है और संक्रमण फैलने की संभावना को कम करती है।
  • होलिका दहन के समय लोग अग्नि की परिक्रमा करते हैं, जिसे “होली की परिक्रमा” कहा जाता है। वैज्ञानिक रूप से, यह शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने में मदद करता है।
  • भारत एक कृषि प्रधान देश है और होली का समय रबी फसलों की कटाई से पहले का होता है। इस समय वातावरण में नमी अधिक होती है, जिससे फसलों पर फंगस और कीटों का हमला हो सकता है। होलिका दहन की गर्मी से वातावरण में मौजूद फंगस और हानिकारक कीटों का नाश होता है। इससे किसानों की फसलों को बचाने में मदद मिलती है, जिससे कृषि उत्पादन बेहतर होता है।
  • होली लोगों को जोड़ने का कार्य करती है। यह तनाव को कम करके आपसी प्रेम और सौहार्द को बढ़ाती है। पुराने गिले-शिकवे मिटाकर लोग एक-दूसरे के करीब आते हैं, जिससे मानसिक तनाव कम होता है।
  • इसके साथ ही होलिका दहन के समय भजन-कीर्तन और नृत्य-गान करने से सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है, जिससे मनोबल बढ़ता है।

होलिका दहन से जीवन प्रबंधन की सीख

होलिका दहन से जीवन प्रबंधन की सीख को निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से आसानी से समझा जा सकता है, जो इस प्रकार हैं –

  • अहंकार से बचें – सफलता पर घमंड नहीं करना चाहिए।
  • सत्य और धर्म के मार्ग पर चलें – यह मुश्किल जरूर होता है, लेकिन अंत में जीत सत्य की ही होती है।
  • नकारात्मकता का दहन करें – अपने मन से द्वेष, क्रोध और बुरे विचारों को समाप्त करें।
आधुनिक संदर्भ में होलिका दहन

आज के दौर में भी होलिका दहन की प्रासंगिकता बनी हुई है। यह हमें याद दिलाता है कि हमें अपने जीवन में अहंकार, क्रोध, ईर्ष्या और नफरत को जलाकर प्रेम, सद्भाव और सच्चाई का मार्ग अपनाना चाहिए। जब हम इस पर्व को पूरी श्रद्धा और आस्था के साथ मनाते हैं, तो यह हमें आंतरिक शुद्धि और सकारात्मकता की ओर प्रेरित करता है।

होलिका दहन का रहस्य क्या है?

प्रह्लाद की बुआ होलिका को ऐसा वस्त्र वरदान में मिला था जिसको पहनकर आग में बैठने से आग उसे जला नहीं सकती थी। होलिका भक्त प्रह्लाद को मारने के वह वस्त्र पहनकर आग में बैठ गई। प्रह्लाद की भगवान विष्णु की भक्ति के फल से होलिका जल गई और प्रह्लाद का बाल भी बांका नहीं हुआ। शक्ति पर भक्ति की जीत की खुशी में यह पर्व मनाया जाने लगा।

होलिका दहन की राख को क्या करना चाहिए?

होलिका दहन की राख को शुभ माना जाता है और इसे कई तरह से उपयोग किया जाता है। लोग इसे माथे पर लगाते हैं ताकि नकारात्मक ऊर्जा दूर हो और सौभाग्य प्राप्त हो। कुछ लोग इस राख को घर के कोनों में छिड़कते हैं, जिससे घर में सकारात्मक ऊर्जा बनी रहती है।

किसान इसे खेतों में छिड़कते हैं, ताकि फसल अच्छी हो और कीटों से बचाव हो सके। कई लोग इस राख को सरसों के तेल में मिलाकर ताबीज बनाते हैं, जिसे पहनने से बुरी नजर से बचाव होता है। होलिका दहन की राख का सही उपयोग करने से शुभ फल प्राप्त होते हैं और जीवन में सुख-समृद्धि बनी रहती है।

होलिका दहन के दिन क्या नहीं करना चाहिए?

होलिका दहन के दिन झगड़ा, अपशब्द और नकारात्मक बातें नहीं करनी चाहिए। शराब और मांसाहार से दूर रहना चाहिए। जलती होलिका का अनादर नहीं करना चाहिए। बड़ों का आशीर्वाद लेना शुभ होता है। देर रात बाहर जाने से बचें और इस दिन नई चीजें खरीदना भी उचित नहीं है।

होलीका दहन: एक नई शुरुआत का संकल्प

होलीका दहन केवल एक परंपरा नहीं, बल्कि बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है। यह हमें सिखाता है कि अहंकार, अन्याय और नकारात्मकता का अंत निश्चित है। जैसे प्रह्लाद की भक्ति ने उन्हें बचाया, वैसे ही सच्चाई और अच्छाई हमेशा विजयी होती हैं। इस शुभ अवसर पर हम भी अपनी बुरी आदतों, नकारात्मक विचारों और कटु भावनाओं को जलाने का संकल्प लें। प्रेम, भाईचारे और सकारात्मक ऊर्जा के साथ जीवन में नई शुरुआत करें। इस पवित्र अग्नि में बीते कल की बुराइयों को छोड़कर, उज्जवल भविष्य की ओर बढ़ें। होलीका दहन की शुभकामनाएँ!

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