भगवान चित्रगुप्त जी की पूजाविधि
कार्तिक माह में शुक्ल पक्ष की द्वितीया को कास्थ्य समाज के लोग चित्रगुप्त भगवान की पूजा एवं उपासना करते है। साथ ही इसी दिन भाई दूज का भी त्यौहार मनाया जाता है। भगवान चित्रगुप्त मानुषों के कर्मो का लेखा जोका रखते हैं। और ऐसी मान्यता है कि चित्रगुप्त जी की पूजा अर्चना करने से व्यक्ति को ज्ञान की प्राप्ति होती है। तो आइए चित्रगुप्त पूजन विधि को विस्तार से जानते हैं।
चित्रगुप्त पूजन सामग्री
क्रम संख्या | सामग्री | मात्रा |
---|---|---|
1 | चावल | 50 ग्राम |
2 | चन्दन | 50 ग्राम |
3 | पत्तल | 1 |
4 | वस्त्र | भगवान के लिये |
5 | रोली | 50 ग्राम |
6 | तिल | 50 ग्राम |
7 | चौकी | 1 |
8 | मौली | 50 ग्राम |
9 | कपूर | 5-6 टिकिया |
10 | धूप | 1-2 |
11 | दूध | आवशकता अनुसार (चरणामृत बनाने हेतु) |
12 | केशर | 5 ग्राम |
13 | रुई | 1 छोटा पैकेट |
14 | दही | आवशकता अनुसार (चरणामृत बनाने हेतु) |
15 | ऋतुफल | 5-6 |
16 | गुड़ | 50 ग्राम |
17 | पान | 1-2 |
18 | शहद | आवशकता अनुसार (चरणामृत बनाने हेतु) |
19 | मिठाई | श्रद्धा अनुसार |
20 | पंचपात्र | 1 |
21 | सुपारी | 5-6 |
22 | चीनी | 50 ग्राम |
23 | कलम | 5-6 |
24 | आंचमनी | 1 |
25 | अबीर | 50 ग्राम |
26 | घृत | 100 ग्राम |
27 | दावात | 5-6 |
28 | तष्ठा | |
29 | खड़ी धनिया | 50 ग्राम |
30 | पिली सरसों | 50 ग्राम |
31 | काँसे का कटोरा | 1 |
32 | स्याही | |
33 | यज्ञोपवीत | 1 |
34 | गंगाजल | |
35 | अर्घा | |
36 | दियासलाई | 1 |
37 | तुलसी पत्र | 5-6 |
38 | सफ़ेद पेपर | आवशकता अनुसार |
39 | गेहूं का आटा | अल्पना बनाने के लिये |
चित्रगुप्त-पूजाविधिः
सबसे पहले एक लोटे में गंगा जल डाल कर हाथ में जल ले और अपने मुँह से स्पर्श करवाते हुए इस मन्त्र के साथ अपने आप को शुद्ध करें
ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा । यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यंतरः शुचिः ।।
कर्ता – स्नानादि नित्यक्रियां कृत्वा, पूजनं कुर्यात् ।
आसनम् – चित्रगुप्त समागच्छ धर्मराजान्तिकादिह ।
लेखनी कटनीहस्त चित्रगुप्त नमोऽस्तु ते ॥
विचित्र – रत्नखचितं दिव्यास्तरणसंयुत्तम् ।
स्वर्णसंहासनं चारु प्रीत्यर्थ प्रतिगृह्यताम् ।
अर्घ्यम् – दुर्वाच्चन्दनपुष्पं च तीर्थतोयाभिमन्त्रितम् ।
अयं चैव मया दत्त चित्रगुप्त नमोऽस्तु ते ॥ २ ॥
चन्दनम् — श्रीखण्डं चन्दनं दिव्य गन्धाढ्यं सुमनोहरम्।
विलेपनं गृहाणदं कृत्याकृत्यविचारक ।। ३ ।।
पुष्पम् – इदं पुष्पं गृहाण एवं सुगन्धं सुमनोहरम् ।
ब्रह्मकाय समुद्भूतं चित्रगुप्त नमोऽस्तु ते ॥ ४ ॥
धूपम् – धूपं गुग्गुल संयुक्त गन्धाढ्यं घृतपूरितम् ।
आघ्रयः सर्वदेवानां चित्रगुप्त नमोऽस्तु ते ।। ५ ।।
दीपम् – दोषं वतिसमायुक्त वतिसमायुक्त घृतेन परिपूरितम् ।
ज्योतिषामुत्तरं ध्वान्तनाशनं प्रतिगृह्यताम् ॥ ६ ॥
वस्त्रम् – आरक्तयुगल वस्त्र युगधर्म – प्रवर्तकम् ।
आच्छादन गृहाणदं चित्रगुप्त नमोऽस्तु ते । ७ ॥
निवेद्यम् – नैवेद्य-फल-पक्वान्नं गुडाद्यंश्च समन्वितम् ।
ईप्सितं च वरं देहि परवेह शुभां गतिम् ॥ ८ ॥
ताम्बूलपूगीफल दक्षिणा – नागवल्लीदलयुक्त पूगीफलसमन्वितम् ।
दक्षिणाभिश्च संयुक्त चित्रगुप्त नमोऽस्तु ते ॥ ९ ॥
चित्रगुप्त जी की पौराणिक कथा
श्री भाष्म पितामह ने पुलस्त्यमुनि से पूछा कि हे महामुने ! संसार में कायस्थ नाम से विख्यात जो पुरुष हैं, वह किस वंश में उत्पन्न हुए और किस वर्ण में कहे जाते हैं ?
हे महामुने ! यह सुनने की मेरी इच्छा है । मेरे इस संदेह को दूर करने में आप समर्थ है।
इसलिये आप कृपा कर इस पवित्र कथा को कहिये। इस प्रकार पूछने पर पुलस्त्य मुनि प्रसन्न होकर भीष्मपितामहजी से बोले – हे गांङ्गय! मैं कास्थ्य उत्पत्ति का वर्णन आप से करता हूँ। जिसको आपने आज तक नहीं सुना होगा, उसी को मैं कह रहा हूं।
जिसने इस चरचरात्मक जगत को उत्पन्न कर पालन किया और करता है। वही फिर नाश करेगा। इस प्रकार अव्यक्त और शांत पुरुष लोक पितामह ब्रम्हा ने जिस तरह पूर्व में इस संसार की वही वर्णन करता हूँ।
मुख से ब्राम्हण, बाहु से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य और पैर से शूद्र । दो, चार छः पैर वाले पशुओं से लेकर समस्त सर्पादि जीवो का एक ही समय में चन्द्रमा – सूर्यादि ग्रहों को और बहुत से जीवों को उत्त्पन्न कर हे भारत ! ब्रम्हा ने सूर्य के समान तेजस्वी ज्येष्ठ पुत्र को बुलाकर कहा कि हे सुव्रत ! तुम यत्न पूर्वक जगत की रक्षा करो।
सृष्टि तथा पालन करने के लिए ज्येष्ठ पुत्र को आज्ञा देकर ब्रम्हा ने जो किया उसे आप सुनिए। एकाग्रचित होकर ब्रम्हा ने दस हजार दस सौ वर्ष की समाधी लगाई, अंत में विश्रांत चित्त हुए। उससे जो हुआ वह आप से कहता हूँ। ब्रम्हा के शरीर में बड़े – बड़े भुजाओ वाले श्याम वर्ण कपलवत नेत्र युक्त, शंख के तुल्य गर्दन, चकवत मुख, तेजस्वी अति बुद्धिमान हाथ में कलम और दवात लिए तेजस्वी अति सुन्दर स्थिर नेत्र वाले एक पुरुष अव्यक्त ब्रम्हा के शरीर से उतपन्न हुए।
हे भीष्म ! समाधि को छोड़कर स्थिर पुरुष को नीचे ऊपर देख कर ब्रम्हा ने पूछा – हे पुरषोत्तम ! हमारे सामने स्थित आप कौन है ? ब्रम्हा का यह वचन सुन वह पुरुष बोला – हे विधि ! मैं आप ही के शरीर से उत्पन्न हुआ हूँ, इसमें कुछ सन्देह नहीं है। हे तात ! अब आप मेरा नामकरण करने योग्य हैं. सो करिये और मेरे योग्य कार्य भी कहिए।
यह वाक्य सुन ब्रह्माजी निज शरीरोपन्न पुरुष से हँसकर प्रसन्न मन से बोले कि मेरे शरीर से तुम उत्पन्न हुए हो हमसे तुम्हारी कायस्थ संज्ञा है और पृथ्वी पर चित्रगुप्त नाम विख्यात होगा। हे वत्स ! धर्मराज की यमपुरी मैं विचार के लिये तुम्हारा निश्चित निवास होगा।
हे पुत्र ! अपने वर्ण में जो उचित धर्म है उसका विधिपूर्वक पालन करो और सन्तान उत्पन्न करो। इस प्रकार ब्रह्माजी भारयुक्त वर को देकर आप अन्तर्ध्यान हो गये । श्री पुलस्त्य ने कहा- हे कुरुवंश की वृद्धि करनेवाले मोष्म । चित्रगुप्त से जो प्रजा उत्पन्न हुई है, उसके नाम, वर्णन करता हूँ सुनो – गौड़, माथुर, भटनागर, सेनरु, अहिंगण, श्रीवास्तव, अम्बष्ठ करण हे महा- म ! और भी चित्रगुप्त से उत्तम अम्बष्ठादिक पुत्र समस्त शास्त्रों में निपुण उत्पन्न हुए ।
तब चित्रगुप्त ने पुत्रों को पृथ्वी पर भेजा और धर्माधर्म के जाननेवाले महामति चित्रगुप्त। धर्म साधन की शिक्षा दी और कहा कि तुम्हें देवताओं का पूजन, पितरों का श्राद्ध तथा तर्पण। ब्राह्मणों का पालन-पोषण और सदैव अभ्यागतों की यत्नपूर्वक सेवा करनी चाहिए।
हे पुत्र ! तीनों लोकों के हित के लिए ल करो और धर्म की कामना करके महिषमदिनी देवी का पूजन अवश्य करे। जो प्रकृति रूप माया, चण्ड और मुण्ड का नाश करनेवाली तथा समस्त सिद्धियां को देने वाली है। उसका पूजन करे। जिसके प्रभाव से देवता लोग भी सिद्धियों को पाकर स्वर्गलोक को गये और स्वर्ग के अधिकार को पाकर सदैव यज्ञ में भाग लेने वाले हुए।
उस देवी के लिए तुम सब उत्तम मिष्ठान्नादि समर्पण करो, जिससे वह चण्डिका देवताओं की भांति तुम्हें भी सिद्धि देनेवाली होवे और वैष्णव धर्म का अबलम्बन कर मेरे वाक्य का प्रतिपालन करो। पुत्रों को आज्ञा देकर चित्र-गुप्तजी आप स्वर्ग को चले गये स्वर्ग में जाकर चित्रगुप्तजी धर्मराज अधिकार में स्थित हुए हे मोडम ! इस प्रकार चित्रगुप्तजी की उत्पत्ति में आप से कही अब मैं उन लोगों का विचित इतिहास और चित्रगुप्त जैसा प्रभाव उत्पन्न हुआ वह भी कहता हूँ सुनिए। श्री पुलस्त्य- बोले धर्माधर्म को जानता हुआ नित्य पापकर्म में रत पृथ्वी सौदास नामक राजा हुआ। उस पापी, दुराचारी तथा धर्म-कर्म से रहित राजा ने जिस प्रकार स्वर्ग में जाकर पुण्य के फन का भोग किया वह कथा सुनो।
राजनीति नहीं जानते हुए भी राजा ने निज राज्य में ढिंढोरा पिटवा दिया कि बात, धर्म, हवन, श्राद्ध, तर्पण, अतिथियों का सत्कार, जप, नियम तथा तपस्या का साधन मेरे राज्य में कोई न करे । देवी आदि की भक्ति में तत्पर वहाँ के निवासो ब्राह्मण लोग उसके राज्य को छोड़ वहाँ से अनेक देशों में चले गये। जो रह गये वे यज्ञ हवन, श्राद्ध तथा तर्पण कभी नहीं करते थे।
हे गंगाजी के पुत्र ! तब से उसके राज्य में कोई भी यज्ञ हवन आदि पुण्य कम नहीं कर पता था । उस समय पुण्य उस राज्य से ही बाहर हो गया था | ब्राम्हण तथा अन्य र्वण के लोग नाश करने लगे | अब आपको उस दुष्ट राजा का कम फल सुनाता हूँ हे भीष्म कार्तिक शुक्ल पक्ष की उत्तम तिथि द्वितीय को पवित्र होकर सभी कायस्थ चित्रगुप्त का पूजन करते थे |
वे भक्ति भाव से परिर्पण होकर धूपदीपादि कर रहे थे देव योग से राजा सौदस भी घूमता हुआ वहां पंहुचा औ पूजन देखकर पूछने लगा यह किसका पूजन कर रहे हो तब वे लोग बोले की राजन हम लोग चित्रगुप्त की शुभ पूजा क रहे हैं ।
यह सुनकर राजा सौदस ने कहा की में भी चित्रगुप्त की पूजा करूँगा यह कहकर सौदस ने विधि पूर्वक स्नानादिकर मन से चित्रगुप्त की पूजा की, इस भक्तियुक्त पूजा करने से उसी क्षण राजा सौदस पाप रहित होकर वेग चला गया इस प्रकार चित्रगुप्त का प्रभावशाली इतिहास मैंने आपसे कहा | अब हे तृप श्रेष्ठ और क्या सुनने की आपकी इक्छा है |
यह सुनकर भीष्म पितामह ने महर्षि पुलस्त्य मुनि से कहा हे विपेन्द्र किस विधि से वहां उस राजा सौदस ने चित्रगुप्त का पूजन किया जिसके प्रभाव से हे मुनि राजा सौदस र्वग लोक को चला गया | श्री पुलस्त्य मुनि जी बोले हे भीष्म चित्रगुप्त के पूजन कि संर्पण विधि में आप से कह रहा हूँ घृत से बने निवेध, ऋतुफल, चन्दन, पुष्प, रीप तथा अनेक प्रकार के निवेध, रेशमी और विचित्र वस्त्र से मेरी, शंख मृदंग, डिमडिम अनेक बाजे का भक्ति भाव से परर्पण होकर पूजन करें।
हे विद्वान नवीन कलश लाकर जल से पतिर्पण करें उस पर शक्कर भरा कटोरा रखें और यतनपूर्वक पूजन कर ब्राम्हण को दान देवें । पूजन का मंत्र भी इस प्रकार पढ़े – दवात कलम और हाथ में खल्ली लेकर पृथ्वी में घूमने वाले हे चित्र गुप्त आप को नमस्कार है। हे चित्रगुप्त आप कायस्थ जाति में उत्पन्न होकर लेखकों को अक्षर प्रदान करते हैं। आप को बार-बार नमस्कार है।
जिसको आपने लिखने की जीविका दी है आप उनका पालन करते हैं इसलिए मुझे भी शान्ति दीजिए हे राजेन्द्र ! हे कुरुवंश के बढ़ाने वाले भीष्म, इन, मन्त्रों. से संकल्पपूर्वक चित्रगुप्तं का पूजन करना चाहिये। इस प्रकार सोदास राजा भक्ति-माव से पूजन कर निज राज्य का शासन करता हुआ कुछ ही समय में मृत्यु को प्राप्त हुआ। हे भारत, यमदूत राजा को उसी क्षण भयानक यमलोक में ले गये । चित्रगुप्त से यमराज ने पूछा कि यह दुराचारी पापकर्म में रत सौदास राजा है । जिसने अपनी प्रजा से पापकर्म करवाया है।
इस प्रकार धर्मराज से पूछे गये धर्माधर्म के जानने वाले महामति चित्र गुप्त हंस कर उस राजा के लिए धर्म विपाक युक्त शुभ बचन बोले – हे धर्मराज ! यह राजा यद्यपि पापकर्म करने वाला पृथ्वी में प्रसिद्ध है और में आप को प्रसन्नता से पृथ्वी में पूज्य हूं। हे स्वामिन् ! आप हो ने मुझे यह वर दिया है । आपका सदैव कल्याण हो, आपको नमस्कार है । हे देव, आप भली-भाँति जानते हैं और मेरी भो मति है कि यह राजा पापी है।
तब भी इस राजा ने भक्ति-भाव से मेरी पूजा की है इससे में इससे प्रसन्न हूँ | हे इष्टदेव इस कारण यह राजा बैकुंठ लोक को जाए | चित्रगुप्त का यह वचन सुनकर यमराज ने राजा सौदस का बैकुंठ जाने की आज्ञा दी और राजा सौदस बैकुंठ लोक को चला गया श्री पुल्सत्य मुनि जी ने कहा हे भीष्म जो कोई सामान्य पुरुष या कायस्थ चित्रगुप्त जी की पूजा करेगा वह भी पाप से छूटकर परमगति को प्राप्त करेगा ।
हे गंगेय आप भी सर्व विधि से चित्रगुप्त की पूजा करिये | जिसकी पूजा करने से हे राजेन्द्र आप भी र्दुलभ लोक को प्राप्त करेंगे । पुलस्त्य मुनि के वचन सुनकर भीष्म जी ने भक्ति मन से चित्रगुप्त जी की पूजा की । चित्रगुप्त की दिव्य कथा को जो श्रेष्ठ मनुष्य भक्ति मन से सुनेगे वे मनुष्य समस्त व्याधियों से छूटकर दघायु होंगे और मरने पर जहाँ तपस्वी लोग जाते है एसे विष्णु लोक को जायेंगे |
॥ चित्रगुप्त चालीसा॥
सुमिर चित्रगुप्त ईश को, सतत नवाऊ शीश।
ब्रह्मा विष्णु महेश सह, रिनिहा भए जगदीश॥
करो कृपा करिवर वदन, जो सरशुती सहाय।
चित्रगुप्त जस विमलयश, वंदन गुरूपद लाय॥
जय चित्रगुप्त ज्ञान रत्नाकर। जय यमेश दिगंत उजागर॥
अज सहाय अवतरेउ गुसांई। कीन्हेउ काज ब्रम्ह कीनाई॥
श्रृष्टि सृजनहित अजमन जांचा। भांति-भांति के जीवन राचा॥
अज की रचना मानव संदर। मानव मति अज होइ निरूत्तर॥ ४ ॥
भए प्रकट चित्रगुप्त सहाई। धर्माधर्म गुण ज्ञान कराई॥
राचेउ धरम धरम जग मांही। धर्म अवतार लेत तुम पांही॥
अहम विवेकइ तुमहि विधाता। निज सत्ता पा करहिं कुघाता॥
श्रष्टि संतुलन के तुम स्वामी। त्रय देवन कर शक्ति समानी॥ ८ ॥
पाप मृत्यु जग में तुम लाए। भयका भूत सकल जग छाए॥
महाकाल के तुम हो साक्षी। ब्रम्हउ मरन न जान मीनाक्षी॥
धर्म कृष्ण तुम जग उपजायो। कर्म क्षेत्र गुण ज्ञान करायो॥
राम धर्म हित जग पगु धारे। मानवगुण सदगुण अति प्यारे॥ १२ ॥
विष्णु चक्र पर तुमहि विराजें। पालन धर्म करम शुचि साजे॥
महादेव के तुम त्रय लोचन। प्रेरकशिव अस ताण्डव नर्तन॥
सावित्री पर कृपा निराली। विद्यानिधि माँ सब जग आली॥
रमा भाल पर कर अति दाया। श्रीनिधि अगम अकूत अगाया॥ २० ॥
ऊमा विच शक्ति शुचि राच्यो। जाकेबिन शिव शव जग बाच्यो॥
गुरू बृहस्पति सुर पति नाथा। जाके कर्म गहइ तव हाथा॥
रावण कंस सकल मतवारे। तव प्रताप सब सरग सिधारे॥
प्रथम् पूज्य गणपति महदेवा। सोउ करत तुम्हारी सेवा॥ २४ ॥
रिद्धि सिद्धि पाय द्वैनारी। विघ्न हरण शुभ काज संवारी॥
व्यास चहइ रच वेद पुराना। गणपति लिपिबध हितमन ठाना॥
पोथी मसि शुचि लेखनी दीन्हा। असवर देय जगत कृत कीन्हा॥
लेखनि मसि सह कागद कोरा। तव प्रताप अजु जगत मझोरा॥ २८ ॥
विद्या विनय पराक्रम भारी। तुम आधार जगत आभारी॥
द्वादस पूत जगत अस लाए। राशी चक्र आधार सुहाए॥
जस पूता तस राशि रचाना। ज्योतिष केतुम जनक महाना॥
तिथी लगन होरा दिग्दर्शन। चारि अष्ट चित्रांश सुदर्शन॥ ३२ ॥
राशी नखत जो जातक धारे। धरम करम फल तुमहि अधारे॥
राम कृष्ण गुरूवर गृह जाई। प्रथम गुरू महिमा गुण गाई॥
श्री गणेश तव बंदन कीना। कर्म अकर्म तुमहि आधीना॥
देववृत जप तप वृत कीन्हा। इच्छा मृत्यु परम वर दीन्हा॥ ३६ ॥
धर्महीन सौदास कुराजा। तप तुम्हार बैकुण्ठ विराजा॥
हरि पद दीन्ह धर्म हरि नामा। कायथ परिजन परम पितामा॥
शुर शुयशमा बन जामाता। क्षत्रिय विप्र सकल आदाता॥
जय जय चित्रगुप्त गुसांई। गुरूवर गुरू पद पाय सहाई॥ ४० ॥
जो शत पाठ करइ चालीसा। जन्ममरण दुःख कटइ कलेसा॥
विनय करैं कुलदीप शुवेशा। राख पिता सम नेह हमेशा॥
ज्ञान कलम, मसि सरस्वती, अंबर है मसिपात्र।
कालचक्र की पुस्तिका, सदा रखे दंडास्त्र॥
पाप पुन्य लेखा करन, धार्यो चित्र स्वरूप।
श्रृष्टिसंतुलन स्वामीसदा, सरग नरक कर भूप॥